Hari singh

राजा हरि सिंह का स्कैंडल: ब्लैंक चेक से बची इज्जत, कर्ण सिंह को देखकर पिघले दंगाई

तारीख– 28 दिसंबर 1963, जगह– श्रीनगर की हजरतबल दरगाह।

सुबह के करीब साढ़े छह बजे थे। अजान की आवाज सुनकर दरगाह में सो रहे खादिम खलील की नींद खुली। उन्होंने देखा कि दरगाह के हॉल में रखा चांदी का बॉक्स टूटा पड़ा है। उस बॉक्स में रखी लकड़ी की वो डिब्बी भी गायब है जिसमें पैगंबर मोहम्मद साहब का बाल था, जिसे मू-ए-मुकद्दस कहा जाता है।

खबर पूरे जम्मू कश्मीर में आग की तरह फैल गई। 50 हजार से ज्यादा लोग काले झंडे लेकर दरगाह के सामने जमा हो गए। जम्मू-कश्मीर में जगह-जगह दंगे शुरू हो गए। श्रीनगर से दूर देश की राजधानी दिल्ली में भी हड़कंप मचा हुआ था। कुछ दिन पहले ही प्रधानमंत्री नेहरू को दिल का दौरा पड़ा था, वो बीमार थे।

इसके बावजूद हालात बिगड़ते देख नेहरू ने इमरजेंसी मीटिंग बुलाई। लाल बहादुर शास्त्री को जम्मू-कश्मीर में शांति बहाल करने की जिम्मेदारी दी गई। गृह मंत्री गुलजारीलाल नंदा, गृह सचिव वेंकट विश्वनाथन और IB की पूरी टीम ने कश्मीर में डेरा डाल दिया, लेकिन हिंसा थमने का नाम नहीं ले रही थी।

इन सबके बीच 1 जनवरी को कश्मीर के सदर-ए-रियासत कर्ण सिंह अचानक हजरतबल दरगाह पहुंच गए। दंगाइयों ने जैसे ही कर्ण सिंह को कार से उतरते देखा माहौल एकदम बदल गया।

गुस्साई भीड़ शांत हो गई और कर्ण सिंह की ओर बढ़ने लगी। लोग कहने लगे हमारा बादशाह आ गया है, अब सब ठीक हो जाएगा। ये देख जम्मू कश्मीर के डोगरा राजघराने के राजकुमार कर्ण सिंह भावुक हो गए। उनकी आंखों में आंसू देख कोई उन्हें गले से लगाने लगा, तो कोई उनका हाथ चूम रहा था।

75 लाख रुपए में अंग्रेजों से हरि सिंह के पूर्वजों को मिली जम्मू कश्मीर रियासत फरवरी 1846, पंजाब के सोबरांव में ब्रिटिश सेना और पंजाब राजघराने के बीच भीषण युद्ध हुआ। इस युद्ध में पंजाब रियासत की महारानी जिंद कौर ने गुलाब सिंह को सेनापति नियुक्त किया था, लेकिन युद्ध से अलग रहकर गुलाब सिंह ने अंग्रेजों की मदद की। इस समय जम्मू कश्मीर का पूरा इलाका पंजाब राजघराने के शासन क्षेत्र में था।

इस जंग को जीतने के बाद अंग्रेजों ने पंजाब के सिख साम्राज्य पर डेढ़ करोड़ रुपए का जुर्माना लगाया। गुलाब सिंह डोगरा ने ‘अमृतसर संधि’ में 75 लाख रुपए अंग्रेजों को देकर पंजाब साम्राज्य का आधा हिस्सा जम्मू, कश्मीर, गिलगिट, बाल्टिस्तान और लद्दाख पर शासन हासिल कर लिया। यहां से जम्मू कश्मीर में डोगरा राजवंश की कहानी शुरू हुई।

कश्मीर सोशलिस्ट पार्टी के नेता और लेखक प्रेमनाथ बजाज के मुताबिक जम्मू कश्मीर की सियासत में वंशवाद की शुरुआत डोगरा वंश से ही हुई थी। इस दौरान राज्य में डोगराओं को ऊंची-ऊंची पदवियां मिलीं।

गुलाब सिंह के बाद उनके बेटे रणबीर सिंह और फिर उनके बेटे प्रताप सिंह जम्मू कश्मीर रियासत के महाराजा बने। 1925 में अपने चाचा प्रताप सिंह की मृत्यु के बाद हरि सिंह जम्मू कश्मीर के सिंहासन पर बैठे। अंग्रेजों को पैसा देकर जम्मू कश्मीर रियासत खरीदने की वजह से डोगरा वंश के राजाओं को हर जगह सम्मान नहीं मिला। महात्मा गांधी इस संधि को ‘सेल डीड’ कहा करते थे।

यही वजह है कि 1940 के दशक में अब्दुल्ला परिवार ने जब डोगरा वंश से कश्मीर को आजादी दिलाने के लिए आंदोलन चलाया तो पूरे प्रदेश में एक नारा गूंजने लगा- ‘अमृतसर बैनामा तोड़ दो, कश्मीर हमारा छोड़ दो।’

राजा हरि सिंह को अपनी विरासत से बेदखल होना पड़ा 1857 में राजा गुलाब सिंह की निधन के बाद उनके 26 साल के बेटे रणवीर सिंह महाराजा बने। जम्मू कश्मीर रियासत पर रणवीर सिंह ने 18 साल तक शासन किया। रणवीर सिंह बेहद धार्मिक थे।

लेखक माधव गोविन्द वैद्य अपनी किताब ‘कश्मीर समस्या और समाधान’ में लिखते हैं कि राजगद्दी पर बैठने के कुछ समय बाद ही उन्होंने टूटे हुए मंदिरों को फिर बनाने के लिए एक धर्मार्थ ट्रस्ट की स्थापना कराई। उन्होंने अपनी देखरेख में मंदिरों का जीर्णोद्धार शुरू किया। इसका असर ये हुआ कि इस्लाम अपना चुके कई हिंदू फिर से सनातन धर्म में वापसी करना चाहते थे। पुंछ, राजौरी और श्रीनगर के इलाके के हिंदू से मुस्लिम बने हजारों मुसलमान राजमहल के सामने जमा हुए। उन्होंने अपने मूल धर्म में लौटने की इच्छा जाहिर की।

महाराजा रणवीर सिंह ने प्रमुख कश्मीरी पंडितों को बुलाकर पूछा कि आपके परिवारजन अपने स्वधर्म में लौटना चाहते हैं, क्या ये संभव है? तब पंडितों ने एक होकर इससे इनकार किया। पंडितों की आपत्ति के बाद ये लोग दोबारा हिंदू नहीं बन पाए।

जम्मू कश्मीर के पूर्व राज्यपाल कर्ण सिंह कहते हैं कि प्रताप सिंह के बाद उनके पिता हरि सिंह ने जम्मू कश्मीर पर 22 साल राज किया। उन्होंने मंदिरों में दलितों की एंट्री पर लगी रोक को खत्म किया। साथ ही वेश्यावृति और बेगार जैसी भेदभाव वाली प्रथाओं को खत्म करने का प्रगतिशील फैसला लिया।

26 अक्टूबर, 1947 को हरि सिंह ने रियासत के भारत के साथ विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए। इस विलय पत्र के खंड 4 में लिखा है- महाराजा हरि सिंह ने जम्मू कश्मीर के भारत में विलय की घोषणा की है।

पाकिस्तानी घुसपैठियों से जंग के बीच राज्य की राजनीतिक हवा बदल गई। कुछ साल बाद शेख अब्दुल्ला के दबाव में 3 अप्रैल 1949 को महाराजा हरि सिंह को हमेशा के लिए कश्मीर से बेदखल कर दिया गया।

पेरिस में महिला की वजह से स्कैंडल में फंसे कश्मीर के आखिरी राजा हरि सिंह के राजतिलक से 4 साल पहले की बात है। 1921 में 26 साल के हरि सिंह पेरिस के एक होटल में ठहरे थे। उनके सुइट में एक महिला घुस आई। थोड़ी देर बाद एक शख्स महिला को अपनी पत्नी बताते हुए कमरे में घुस आया। उसने रुपयों की डिमांड की।

लेखक कुलदीप चंद्र अग्निहोत्री अपनी किताब ‘महाराजा हरि सिंह’ में लिखते हैं कि युवराज ने बदनामी से बचने के लिए इंग्लैंड की मिडलैंड बैंक के दो ब्लैंक चेक महिला को दिए। जिसमें से एक चेक से पैसा ले लिया गया। कहा जाता है कि दूसरा चेक बैंक में फोन कर हरि सिंह ने रुकवा दिया।

दरअसल, इस पूरे मामला का सरगना ब्रिटेन का बड़ा वकील हॉब्स था। उसने महाराज के ADC कैप्टन ऑथर से सांठगांठ की और एक साजिश रची। इस साजिश में रॉबिंसन नाम की महिला का इस्तेमाल किया। हालांकि, मामला दबा दिया गया।

हरि सिंह जम्मू कश्मीर रियासत के आखिरी राजा साबित हुए। उनके कार्यकाल में 1937 तक चीन ने शक्सगाम घाटी पर भी अपना दावा ठोंक दिया। इस तरह कश्मीर रियासत का बड़ा हिस्सा देश की आजादी के पहले ही चीन के पास चला गया।

6 साल की उम्र में पिता हरि सिंह से अलग रहने लगे कर्ण सिंह महाराजा हरि सिंह ने चौथी शादी पंजाब के कांगड़ा जिले के एक गरीब परिवार की लड़की तारा देवी से की थी। गरीबी में बचपन बीतने की वजह से तारा का स्वभाव पति के स्वभाव से ठीक उल्टा और बेहद उदार था।

9 मार्च 1931 को तारा ने इकलौते बेटे को जन्म दिया, जिसका नाम कर्ण रखा गया। कर्ण का जन्म क्रांतिकारी भगत सिंह को फांसी दिए जाने से ठीक दो सप्ताह पहले हुआ था।

‘द वीक’ मैगजीन को दिए इंटरव्यू में कर्ण सिंह अपने बचपन को याद करते हुए कहते हैं, ‘मेरे पिता ने मुझ पर निगरानी रखने के लिए सख्त नियम बनाए थे। वह मुझे अनुशासन में रखना चाहते थे। 6 साल की उम्र से मैं अपने दो साथियों के साथ पिता से अलग करण महल में रहता था। मुझे एक सप्ताह में सिर्फ तीन बार मां से मिलने की इजाजत थी, जबकि सप्ताह में सिर्फ एक बार अपने पिता से मिलने गुलाब भवन जाता था।’

उन्होंने आगे कहा, ‘इतनी कड़ाई से मेरा लालन-पालन शायद इसलिए हुआ, क्योंकि मैं इकलौता बेटा था। पिता नहीं चाहते थे कि मैं बिगड़ जाऊं। यही वजह थी कि धनी और बड़े लोगों के बच्चे जिस मेयो कॉलेज में पढ़ते थे, पिता जी ने वहां मेरा एडमिशन नहीं कराया। हायर सेकेंडरी तक की पढ़ाई के लिए दून स्कूल भेज दिया गया।’

जम्मू कश्मीर यूनिवर्सिटी से PG करने के बाद कर्ण सिंह ने दिल्ली यूनिवर्सिटी से PhD की।

‘मैंने जिसे सदर-ए-रियासत बनाया, वो छोकरा मुझे गिरफ्तार कराएगा?’ 1949 में हरि सिंह को जिंदगीभर के लिए बाहर किए जाने के बाद 18 साल के कर्ण सिंह को जम्मू कश्मीर का सदर-ए-रियासत बनाया गया। जम्मू कश्मीर रियासत के भारत में मिलाए जाने के बाद यह पद राज्यपाल के बराबर होता था।

कर्ण सिंह की नियुक्ति की सिफारिश खुद शेख अब्दुल्ला ने भारत सरकार से की थी। शेख को लगता था कि 18 साल का लड़का है, जैसा मैं कहूंगा वैसा करेगा, लेकिन सदर-ए-रियासत बनने के बाद कर्ण सिंह हर फैसला नेहरू की सलाह पर लेने लगे।

1952 के बाद कश्मीर में शेख अब्दुल्ला भारत विरोधी भाषण देने लगे थे। केंद्र सरकार और सदर-ए-रियासत कर्ण सिंह को खबर लगी कि शेख कश्मीर में कुछ बड़ा प्लान कर रहे हैं।

इसकी जानकारी मिलते ही कर्ण सिंह नेहरू से मिलने दिल्ली पहुंच गए। 8 अगस्त, 1955 को शेख अब्दुल्ला अपनी बेगम के साथ पहलगाम के अपने घर में आराम कर रहे थे। जम्मू कश्मीर पुलिस और सेना के अधिकारियों ने बहुत देर तक उनका दरवाजा खटखटाया तो शेख ने खुद दरवाजा खोला। अफसरों ने उन्हें सरकार की बर्खास्तगी की जानकारी दी और गिरफ्तारी का वारंट दिखाया।

वारंट देखते ही शेख अब्दुल्ला चिल्लाने लगे। कहने लगे वो छोकरा कौन होता है, मुझे गिरफ्तार कराने वाला। मैंने ही उसे सदर-ए-रियासत बनवाया है। अधिकारियों के समझाने के बाद वे शांत हो गए।

थोड़ी देर सोचने के बाद शेख ने अफसरों से कहा, ‘मुझे कुछ सामान पैक करना है और नमाज भी पढ़नी है। इसके लिए मुझे दो घंटे का समय दीजिए।’ कर्ण सिंह अपनी आत्मकथा में इस घटना का जिक्र करते हुए लिखते हैं कि इन दो घंटे में शेख अब्दुल्ला ने घर के अंदर कई कागजात जला दिए। कुछ साल बाद जिस केस में वो जेल गए थे, उसे वापस लेकर उन्हें रिहा कर दिया गया।

1965 में कर्ण सिंह को जम्मू कश्मीर का राज्यपाल बनाया गया। 1967 में उन्होंने राज्यपाल के पद से इस्तीफा दे दिया। इसके बाद कांग्रेस सरकार में वे देश के सबसे युवा कैबिनेट मंत्री बनाए गए।

राजपरिवार का कोई सदस्य राजनीति में नहीं हुआ सफल अपनी उम्र के 95 साल पूरे कर चुके डॉ. कर्ण सिंह उधमपुर-डोडा संसदीय सीट से चार बार लोकसभा चुनाव जीत चुके हैं। उन्होंने 1967, 1971 और 1977 में कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीता। कांग्रेस (अर्स) बनने पर उसके टिकट पर 1980 में यहीं से जीत हासिल की।

1977 में जब पूरे देश में जनता पार्टी की लहर थी, उस समय भी कांग्रेस उम्मीदवार के तौर पर डॉ. कर्ण सिंह ने शानदार जीत हासिल की थी। 1984 में उन्होंने जम्मू-पुंछ संसदीय क्षेत्र से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा, लेकिन चुनाव नहीं जीत पाए। 1989 से लेकर 1990 तक वह अमेरिका में भारत के राजदूत रहे।

30 नवंबर 1996 से 12 अगस्त 1999 तक वह राज्यसभा के सदस्य रहे। कांग्रेस से राजनीतिक करियर शुरू करने वाले कर्ण सिंह को नेशनल कांफ्रेंस ने राज्यसभा में भेजा था।

इसके बाद लगातार 18 साल 28 जनवरी 2000 से 27 जनवरी 2018 तक कांग्रेस की ओर से राज्यसभा में रहे।

कर्ण सिंह सिंह के दो बेटे, एक कांग्रेस तो दूसरा BJP में कर्ण सिंह के बड़े बेटे अजातशत्रु ने नेशनल कॉन्फ्रेंस से राजनीति में एंट्री की। 1996 में नगरोटा विधानसभा सीट से चुनाव जीतकर जम्मू कश्मीर सरकार में मंत्री बने। 2014 में वो अमित शाह की मौजूदगी में BJP में शामिल हुए। कर्ण सिंह के दूसरे बेटे विक्रमादित्य सिंह पेशे से होटल व्यवसायी हैं।

अगस्त, 2015 में विक्रमादित्य जम्मू कश्मीर पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (PDP) में शामिल होकर विधायक बने। अक्टूबर 2017 में विधान परिषद और PDP पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा देकर कांग्रेस में शामिल हो गए। 2019 में उधमपुर लोकसभा क्षेत्र से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़े, लेकिन BJP के जितेंद्र सिंह से हार गए।

जम्मू कश्मीर के वरिष्ठ पत्रकार मनु श्रीवत्स कहते हैं कि कर्ण सिंह के बाद उनके दोनों बेटों ने बहुत कोशिश की, लेकिन वे कश्मीर की राजनीति में अपने आपको स्थापित नहीं कर पाए। बड़े बेटे अजातशत्रु और छोटे बेटे विक्रमादित्य ने अपने दादा की कुर्बानी और इज्जत को दांव पर लगा राजनीतिक समझौते भी किए। इससे नाराज जनता ने डोगरा राज को खारिज करके राजनीति में हाशिए पर धकेल दिया।